फर्श पर
निर्मला गर्ग
चिड़िया आती है
डाल जाती तिनके फर्श पर
हवा आती है
बिखेर जाती धूल फर्श पर
सूरज आता है
सजा जाता चिंदियाँ फर्श पर
मुन्ना आता है
उलट देता कटोरी फर्श पर
घर की फर्श हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का एक अटूट हिस्सा होती है। चिड़िया आकर फर्श पर तिनके डाल जाती है। इस तरह से चिड़िया भी हमारे घर के फर्श पर अपना अधिकार जताती है। हवा भी जब बाहर से आती है तो अपने आने की सूचना फर्श पर धूल बिखेर कर देती है। सूरज अपनी किरणों से रंगीन कागज सी चिंदियाँ फर्श पर सजा देता है। बच्चों के लिए घर का फर्श खेल का मैदान होता है। वे सिर्फ कटोरियाँ ही नहीं उलटते बल्कि अपने सारे खिलौने फर्श पर बिखेर देते हैं।
मम्मी आती है
बीनती दाल-चावल फर्श पर
पापा आते हैं
उतार देते जूते फर्श पर
घर की मालकिन के लिये फर्श ही उसकी कर्मभूमि होती है। वह फर्श पर दाल-चाव बीनती है, सब्जियाँ काटती है। वहीं बैठकर पूरे मुहल्ले के बारे में गप्प लड़ाई जाती है। घर का मुखिया फर्श को अपनी आरामगाह बना लेता है। जूते उतारने का मतलब है पूरे दिन की थकान उतारना। जूते उतारने से ये भी जाहिर होता है कि आपने अपने दिन का काम समाप्त कर दिया।
महरी आती है
समेट लेती है सब कुछ
अपने बिवाई पड़े हाथों में
और इस तरह लिखती है हर रोज
एक कविता फर्श पर
महरी की भूमिका एक काम वाली से कुछ ज्यादा होता है। वह हमारे सुख-दुख की साक्षी होती है। हालांकि काम करने से उसके हाथों में छाले पड़ गये होते हैं, फिर भी उन हाथों से वो फर्श पर फैली हुई सारी गंदगी समेट लेती है। इस तरह से हर रोज वह फर्श पर एक नई कविता लिख जाती है। फर्श फिर से निर्मल हो जाती है।