एक फूल की चाह
सियारामशरण गुप्त
Part 2
सभी ओर दिखलाई दी बस,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया।
ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते से अंगारों से,
झुलसी जाती थी आँखें
जगमग जगते तारों से।
आपके आस पास का जो माहौल होता है उसकी व्याख्या आप अपने मूड के हिसाब से करते हैं। इन पंक्तियों में ऐसा ही दिखाया गया है।
सुखिया के पिता चिंतित हैं इसलिए उन्हें रात में हर ओर अंधकार ही नजर आ रहा है। उन्हें लगता है वह विशाल अंधकार उनकी बेटी को निगल लेगा। विशाल आसमान में जो तारे दिख रहे हैं वे ऐसे लगते हैं जैसे अंगारे जल रहे हों। जगमगाते तारों को देखने से आँखें जैसे झुलस रही हों।
देख रहा था जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
सुखिया का पिता देख रहा है कि जो बच्ची कभी एक पल भी स्थिर होकर नहीं बैठती थी वह आज चुपचाप पड़ी है। वह अब अपनी बेटी के मुँह से किसी भी तरह केवल यह सुनना चाहता था कि वह देवी माँ के प्रसाद का फूल लाने की बात कहे।
ऊँचे शैल शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल,
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि कर जाल।
दीप धूप से आमोदित था
मंदिर का आँगन सारा,
गूँज रही थी भीतर बाहर
मुखरित उत्सव की धारा।
सुखिया का पिता मंदिर की ओर चल देता है। इन पंक्तियों में मंदिर की शोभा का वर्णन है। मंदिर काफी बड़ा है और एक पहाड़ की चोटी पर बना है। मंदिर के प्रागन के तालाब में कमल के फूल खिले हुए हैं। जब उन फूलों पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो ऐसा लगता है जैसे सोने के कलश जगमगा रहे हों। मंदिर का पूरा आंगन धूप, दीप और फूलों की खुशबू से महक रहा है। मंदिर के अंदर और बाहर किसी उत्सव का सा माहौल है। इन पंक्तियों से पता चलता है कि मंदिर काफी लोकप्रिय है और वहाँ हमेशा लोगों की भीड़ लगी रहती है।
भक्त वृंद मृदु मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद मय,
"पतित तारिणी पाप हारिणी,
माता तेरी जय जय जय।"
"पतित तारिणी, तेरी जय जय"
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढ़िकला।
भक्तों के झुंड मधुर वाणी में एक सुर में देवी माँ की स्तुति कर रहे हैं। सुखिया के पिता के मुँह से भी देवी माँ की स्तुति निकल जाती है। फिर उसे ऐसा लगता है कि किसी अज्ञात शक्ति ने उसे मंदिर के अंदर धकेल दिया।
मेरे दीप फूल लेकर वे
अंबा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब
आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
सोचा, बेटी को माँ के ये,
पुण्य पुष्प दूँ जाकर मैं।
पुजारी उसके हाथों से दीप और फूल ले लेता है और देवी की प्रतिमा को अर्पित कर देता है। उसके बाद जब पुजारी उसे प्रसाद देता है तो सुखिया का पिता एक पल को ठिठक जाता है। शायद उसे इसकी आशा नहीं थी। वह तो बस अब यही सोचने लगता है कि कितनी जल्दी अपनी बेटी को देवी माँ का प्रसाद दे।
सिंह पौर तक भी आँगन से
नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि "कैसे
यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो देखो भाग न जावे,
बना धूर्त यह है कैसा,
साफ स्वच्छ परिधान किए है,
भले मानुषों के जैसा।"
इन पंक्तियों से कविता के मूल मुद्दे की शुरुआत होती है। सुखिया और उसके पिता दलित हैं। आज भी कई स्थानों पर दलितों को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं है। ऐसी कुप्रथाओं को मानने वाले लोगों को लगता है यदि कोई दलित मंदिर में प्रवेश करेगा तो उससे मंदिर अपवित्र हो जाएगा।
अभी सुखिया का पिता मंदिर के द्वार तक भी नहीं पहुँच पाता है कि कोई पीछे से आवाज लगाता है, "अरे यह अछूत मंदिर के भीतर कैसे आ गया? इस धूर्त को तो देखो, कैसे सवर्णों जैसे पोशाक पहने है। पकड़ो, कहीं भाग न जाए।"
दलितों के बारे में यह धारणा है कि वह मैले कुचैले कपड़े पहनते हैं। इसलिए साफ सुथरे कपड़े पहनने पर सुखिया के पिता पर स्वांग धरने का आरोप लगाया जाता है।