9 हिंदी स्पर्श


एक फूल की चाह

सियारामशरण गुप्त

Part 3

पापी ने मंदिर में घुसकर
किया अनर्थ बड़ा भारी,
कलुषित कर दी है मंदिर की
चिरकालिक शुचिता सारी।
ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी,
किसी बात में हूँ मैं आगे
माता की महिमा के भी?

भीड़ में से कोई कहता है कि सुखिया का पिता बहुत बड़ा पापी है और उसने मंदिर में जाकर बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया। उसके मंदिर में जाने से मंदिर अपवित्र हो गया।

यह सुनकर सुखिया के पिता का कहना है कि ऐसा कैसे हो सकता है। उसका कहना है कि देवी माँ की महिमा के आगे उसकी अपवित्रता बहुत ही तुच्छ है। एक मामूली सा आदमी भला भगवान का बाल भी कैसे बाँका कर सकता है।

माँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा।
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से
मुझे घेरकर पकड़ लिया,
मार मारकर मुक्के घूँसे
धम्म से नीचे गिरा दिया।

सुखिया के पिता का कहना है कि वे लोग माँ के भक्त हो ही नहीं सकते। भला भगवान के भक्त के मन में ऐसे तुच्छ विचार कैसे आ सकते हैं। वे लोग तो भगवान की महिमा को कम कर रहे हैं।

बाकी लोग उसकी कुछ नहीं सुनते हैं। लोग उसे घेर लेते हैं और फिर उस पर लात घूँसों की बरसात होने लगती है।

मेरे हाथों से प्रसाद भी
बिखर गया हा! सबका सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुँच सके यह अब।
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात दिवस का दंड विधान
मुझको हुआ, हुआ था मुझसे
देवी का महान अपमान!

उस मारापीटी में उसके हाथों से प्रसाद गिर जाता है। अब वह इस बात को सोचकर दुखी है कि अपनी बेटी के लिए प्रसाद भी नहीं ले जा पाएगा। लोग उसे अदालत ले जाते हैं, जहाँ उसे सात दिनों के लिए जेल की सजा सुनाई जाती है। सुखिया के पिता को लगने लगता है कि जरूर उसने देवी का अपमान किया होगा।

मैंने स्वीकृत किया दंड वह
शीश झुकाकर चुप ही रह
उस असीम अभियोग, दोष का
क्या उत्तर देता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविश्रांत बरसा के भी
आँखें तनिक नहीं रीतीं।

सुखिया का पिता सिर झुकाकर उस दंड को स्वीकार कर लेता है। उसके पास अपनी सफाई में कहने को कुछ नहीं है। जेल के वे सात दिन ऐसे बीतते हैं जैसे सदियाँ बीत रही हों। उसकी आँखों से लगातार आँसू बहते रहते हैं। अनवरत आँसू बहने के बाद भी उसकी आँखें सूखी रहती हैं। यहाँ पर सूखी आँखों का मतलब है कि उन आँखों में अब उम्मीद की एक भी किरण नहीं बची है।

दंड भोगकर जब मैं छूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई
भय जर्जर तनु पंजर को।
पहले की सी लेने मुझको
नहीं दौड़कर आई वह,
उलझी हुई खेल में ही हा!
अबकी दी न दिखाई वह।

जब वह जेल से छूटता है और घर के लिए चलता है तो उसके पैर नहीं उठ रहे हैं। ऐसा लगता है कि भय के कारण उसका शरीर बेजान हो चुका है और उस बेजान काया को कोई घर की ओर धकेल रहा था। जब वह घर पहुँचता है तो हमेशा की तरह उसकी बेटी दौड़कर नहीं आती है और न ही वह कहीं खेलती हुई दिखाई देती है। उसे आभास हो जाता है कि उसकी बेटी अब इस दुनिया में नहीं है।

उसे देखने मरघट को ही
गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही
फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर
छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल सी कोमल बच्ची
हुई राख की थी ढ़ेरी।

वह अपनी बच्ची को देखने के लिए सीधा श्मशान पहुँचता है। उसके रिश्तेदारों ने पहले ही उसकी बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया है। बुझी हुई चिता देखकर उसका कलेजा जल उठता है यानि उसका दुख और भी बढ़ जाता है। उसकी फूल सी सुंदर बच्ची अब राख के ढ़ेर में बदल चुकी है।

अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा।

वह विलाप करने लगता है। उसे अफसोस हो रहा है कि अपनी बेटी को अंतिम बार गोदी में न ले सका। उसे इस बात का भी अफसोस हो रहा है कि अपनी बेटी को वह देवी का प्रसाद भी न दे सका।