9 हिंदी स्पर्श


नए इलाके में

अरुण कमल

इन नए बसते इलाकों में
जहाँ रोज बन रहे हैं नए-नए मकान
मैं अकसर रास्ता भूल जाता हूँ

यह कविता अरुण कमल ने लिखी है। इस कविता में कवि ने शहरों में लगातार होने वाले बदलावों से होने वाली परेशानियों के बारे में लिखा है। आज आप जहाँ भी जाएँगे, आपको कुछ न कुछ नया बनता हुआ दिखेगा। कहीं नई इमारत बन रही होती है, तो कहीं नया पुल या फिर नया हाईवे।

ऐसा लगता है कि हर छ: महीने के बाद शहर का नक्शा ही बदल जाता है। ऐसे में अगर आप किसी शहर में साल दो साल के बाद जाते हैं तो सब कुछ बिलकुल अपरिचित लगने लगता है।

शहर में नये मुहल्ले रोज ही बसते हैं। ऐसी जगहों पर रोज नये-नये मकान बनते हैं। रोज-रोज नये बनते मकानों के कारण कोई भी व्यक्ति ऐसे इलाके में रास्ता भूल सकता है। कवि को भी यही परेशानी होती है।

धोखा दे जाते हैं पुराने निशान
खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़
खोजता हूँ ढ़हा हुआ घर
और जमीन का खाली टुकड़ा जहाँ से बाएँ
मुड़ना था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंगवाले लोहे के फाटक का
घर था इकमंजिला

अक्सर जब हम किसी खास जगह पर जाना चाहते हैं तो वहाँ तक पहुँचने के लिए रास्तों के साथ मिलने वाले लैंडमार्क या निशानियों की मदद लेते हैं। आपने सुना होगा कि आगे चलने पर एक मंदिर आयेगा और उसके बाद पीपल का एक विशाल पेड़ मिलेगा। वहीं से बाएँ मुड़ना है।

जो पुराने निशान हैं वे धोखा दे जाते हैं क्योंकि कुछ पुराने निशान तो सदा के लिए मिट जाते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि कोई बूढ़ा पीपल का पेड़ गायब हो जाता है या कोई ढ़हा हुआ मकान अब नहीं दिखता। पहले तो जमीन के खाली टुकड़े के पास से बाएँ मुड़ना था और उसके बाद दो मकान के बाद बिना रंगवाले लोहे के फाटक से इकमंजिले मकान में जाना था। लेकिन हो सकता है कि खाली जमीन पर कोई नया भवन बन चुका हो और बिना रंगवाला लोहे का फाटक अब रंगीन हो चुका हो। इकमंजिले मकान की जगह तीनमंजिला मकान खड़ा हो चुका हो।

और मैं हर बार एक घर पीछे
चल देता हूँ
या दो घर आगे ठकमकाता
यहाँ रोज कुछ बन रहा है
रोज कुछ घट रहा है
यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं

लेकिन हर बार की तरह इस बार भी कवि ठकमका जाता है और या तो एक घर पीछे या दो घर आगे चला जाता है। जब पूरा लैंडस्केप ही बदल जाए तो ऐसा होना स्वाभाविक है। जहाँ पर रोज ही कुछ नया बन रहा हो वहाँ पर रास्ते ढ़ूँढ़ने के लिए आप अपनी याददाश्त पर भरोसा नहीं कर सकते।

एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया
जैसे वसंत का गया पतझड़ को लौटा हूँ
जैसे बैसाख का गया भादों को लौटा हूँ
अब यही है उपाय कि हर दरवाजा खटखटाओ
और पूछो – क्या यही है वो घर?
समय बहुत कम है तुम्हारे पास
आ चला पानी ढ़हा आ रहा अकास
शायद पुकार ले कोई पहचाना ऊपर से देखकर।

एक ही दिन में सबकुछ इतना बदल जाता है कि एक दिन पहले की दुनिया पुरानी लगने लगती है। कवि को लगता है कि वह महीनों बाद लौटा है। अब सही घर ढ़ूँढ़ने का एक ही उपाय है कि हर दरवाजे को दस्तक दो। अब तो बारिश भी आने वाली और उम्मीद है कि कोई परिचित मुझे देख ले और आवाज लगा दे। यहाँ पर बारिश की उपमा का इस्तेमाल किसी भी जाने अनजाने मुसीबत के लिए किया गया है। हो सकता है कि रात आने वाली हो और आपके पास लौटने के लिए टिकट ना हो। हो सकता है किसी जरूरी काम से वहाँ रात में ठहरना जरूरी हो।